kavita
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कण -कण में फागुन रस घोल रहा है
चंचल मन गली- गली डोल रहा है |
सजनी की आखों से छलक रही प्रीत
होठों पर फड़क रहे अनगिन संगीत
सुधियों के द्वार कौन खोल रहा है |
कण- कण में फागुन रस घोल रहा है ||
पग- पर पसरा है आज राग- रंग
रग़- रग़ में वाण आज बेधता अनंग
गोरी के यौवन को तोल रहा है |
कण- कण में फागुन रस घोल रहा है ||
रह-रह कर बंसी- धुन टेर रहा कौन
बरबस है तोड़ रहा जोगन का मौन
सबके सिर चढ़कर मद बोल रहा है |
कण- कण में फागुन रस घोल रहा है ||
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