kavita
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ग्रीष्म का उत्ताप
सिर चढ़
बोलता है !
सनसनाती हवाएँ
साँकल बजातीं
भ्रम किसी के आगमन का
हैं जगातीं
हठी झोंका
द्वार का पट
खोलता है !
तप रही धरती कि
मौसम जल रहा है,
दिवस दर्वी बन
मनुज को तल रहा है !
शुष्क पत्ते सा
विवश मन
डोलता है !
कहाँ उस मधुपर्व का
अरुणिम सुखद क्षण,
आज लू की लपट से
जलता हुआ तन !
अब न वासंती पवन
मद घोलता है !
ग्रीष्म का उत्ताप
सिर चढ़ बोलता है !!
आचार्य विजय गुंजन
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