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कैसी यह बरसात ओ भगवन कैसी यह बरसात
चारों तरफ तबाही -बर्बादी की बिछी बिसात
ओ भगवन कैसी यह बरसात !
स्वप्न बुने थे हमने , दुनिया होगी हरी-भरी
मगर विधाता की, किस कारण भृकुटी आज चढ़ी
भूख-महामारी फैली है बिगड़े हैं हालात
ओ भगवन कैसी यह बरसात !
पशु -धन का छय हुआ और सारे घर-वार दहे
कितनों के परिवार बिखरकर जाने कहाँ बहे
हा-हा- करती बाढ़ दानवी लगे भयावह रात
ओ भगवन कैसी यह बरसात !
काल बना विकराल रहा कर भू पर नंगा नाँच
मौत रही है सर्वनाश की कटुक कथा अब बाँच
शेष बच गई है हिस्से में विपदा की बारात
ओ भगवन कैसी यह बरसात !
जल का हुआ प्रलय ऐसा सारे जग-जंतु मरे
जर-जजात सब लता-गुल्म हैं डूबे हरे-भरे
दिखती है हर ओर यहाँ अब दुःख की घिरी कनात
ओ भगवन कैसी यह बरसात !
बहे जा रहे छह्लाए कुछ मृतकों के चप्पल
उपलाए हैं दहे जा रहे कुछ लाशों के दल
यह कैसी प्रभु तुमने भेजी खुशियों की सौगात
ओ भगवन कैसी यह बरसात !
भूखे बच्चे हैं मचान पर जीवन काट रहे
वे कहते दिन -रात वहाँ हम राहत बाँट रहे
मुरझा गए खिले पलकों में सपनों के जलजात
ओ भगवन कैसी यह बरसात !
– विजय “गुंजन”
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