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भावों के चक्रव्यूह में
उलझा मेरा मन
टोहता है अर्थवाही उन शब्दों को
जो पहुंचा दे उसे
उस मंजिल तक
जहाँ से खुलता है कविता का द्वार
उसके अंतस् के धुंध के
घने और गहरे आवरण को चीरकर .
शब्द जो अविनाशी अक्षरों का
समाहार होता है
कई स्पर्श – अन्तस्थ और उष्मों का
अस्तित्व समाहित होता है
उसकी काया में
तभी तो विस्फोट करता है शब्द .
सचमुच अक्षरों की सारी अक्षुण्ण संजीवनी
संचरित होती है शब्दों में
यदि शब्द आज ब्रह्म है
तो इसका सारा श्रेय
उन अक्षरों को जाता है
जिनसे उनका निर्माण हुआ है
अगर शब्द आज सुरक्षित है
तो चमत्कार है उन अक्षरों का
जो कवच बनकर एकाकार हैं
उनकी काया में .
अपना सारा अस्तित्व समर्पित कर दिया है अक्षरो ने
शब्दों के नाम .
अब कुछ नहीं है उनका
सबकुछ शब्दों का है
क्यों कि शब्द ब्रह्म होता है
अब वे नहीं बोलेंगे
बोलेगा केवल शब्द
कविता में उतरकर !
आचार्य विजय ” गुंजन ”
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