kavita
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अब नहीं सोते हैं लोग
घर की छतों पर
नहीं लेते हैं सुख
दूधिया चाँदनी रातों के
और नहीं निहार पाते हैं
खुली आँखों से एकटक
गतिमान टिमटिमाते तारों को #
नहीं भर पाते हैं अपने मन में
आकाश के छिपे
अनगिन रहस्यों के भेद
नहीं भिंगोकर तृप्त कर पाते हैं
अपने तन-मन
शुभ्र ज्योत्स्ना की शीतलता में #
नहीं उतार पाते हैं
अपने मन के रिक्त आँगन में
आकाश के अर्थपूर्ण मौन #
लोग विवश हैं
सोने को दुबककर
घरों के अंदर
क्यों कि दहशत
अब उतर आते हैं छतों पर
पिछवाड़े से #
आचार्य विजय ” गुंजन ”
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