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” मेनका श्रृंगार फिर करने लगी है ” गीत-गंधी ग़ज़ल ( कांटेस्ट )

kavita
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बिखरे पन्नों को जमा फिर कर रहा हूँ ,
रंग उनमें फिर सुनहले भर रहा हूँ |
=
झील सी ठहरी किसी की आँखों में मैं
स्वच्छ झरने की तरह फिर झर रहा हूँ |
=
कल्पनाएँ ले रहीं अंगड़ाइयां हैं
हवाओं के संग गगन में तर रहा हूँ |
=
मेनका श्रृंगार फिर करने लगी है
अडिग विश्वामित्र मैं फिर डर रहा हूँ |
=
दूसरा दुष्यंत कोई आ न धमके
आश्रमी इतिवृत्त से फिर डर रहा हूँ |
=
कल्पना के पंख का उन्मेष कम कर
फिर धरा की ओर मुड़ के उतर रहा हूँ |
=
कण्व का आश्रम युवा फिर हो गया है
रोककर रथ वहीं आज ठहर रहा हूँ |
=
आचार्य विजय ” गुंजन ”

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