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दो ग़ज़लें (कांटेस्ट )

kavita
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घोल ‘गुंजन’ ग़ज़ल में शहद प्यार का ( एक )
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आज अपना वतन ही बेगाना हुआ हक़ की खातिर लड़े तो हर्जाना हुआ |
नाक नीचे से मुजरिम गुज़र चल गया
घर निरपराध का ही निशाना हुआ |
पाक सदियों से जो था सदन अबतलक आज पाखंडियों का ठिकाना हुआ |
मेरे व्रण पर लवण नित छिड़कते रहे
उफ़ जरा कर दिया तो बहाना हुआ |
न्याय पाने की उम्मीद में था चला
भर उम्र के लिए क़ैदखाना हुआ |
घोल गुंजन ग़ज़ल में शहद प्यार का
है चमन मुल्क़ का क़ातिलाना हुआ |
*
मुशायरे की जगह पर मुजरे हुए ( दो )
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कितने ज़माने हो गए गुज़रे हुए
दिल टूट टुकड़ों में कई मिसरे हुए |
जो थे बसे कलतक सड़क के हाशिये
अहले सहर ही वे दिखे उजड़े हुए |
जब-जब गिरी है गाज उनके ताज़ पर
तब-तब वही बदहाल हैं मुहरे हुए |
चोर की चोरी गई बढ़ती यहाँ
जब भी अधिक जितने कड़े पहरे हुए |
हैं जो ज़माने से रहे छलते हमें
वे ही मियाँ सर पर सजे सेहरे हुए |
साहित्य का संगम वहाँ पर था हुआ
मुशायरे की जगह पर मुजरे हुए |
आचार्य विजय ‘ गुंजन ‘

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